रविवार, 3 अक्तूबर 2010

संचय

 झूठी प्रीत ,पराये -पन  से  अपनेपन   की पीर भली /---
 पावन-सलिला,दूषित-जल,से घट,पनघट की नीर भली/
 वातायन को खोल उदय,स्वक्ष समीर को आने दे ,
ममता का आँचल खुला हुआ ,कुछ प्रसून बरसाने दे /
पीड़ित मौन ,सून्य आलंबन, आशा के दीप नहीं होते ,
बिस्तृत व्योम ,सानिध्य सुगम,इक्षित लक्ष्य,को पाने दे /
क्या खोया,मत संचित कर,क्या पाना है लक्षित कर,
 भींगीआँखों में स्वप्न भरो, बे -पीर हृदय हो जाने दे/
        उष्मित अंक,कलुषित नैनो, से कंटक-पथ,जंजीर भली /--
बिस्तृत सागर में नौकायन,उन्माद भरा मत चुनना क्यों ?
कर तिरोहित  उद्वेग -अग्नि में,समस्त विकार जल जाने दे  /--
प्रस्तर बन निर्मित हो जाये,सृजन स्वरूप से डरना क्यों  ?
नींव का पत्थर बनना होगा ,स्व-स्वरुप मिट जाने दे  /--
          दिव्य रूप,नित दुखती- रग से, ताजमहल की नींव भली  /----
निष्प्रयोज्य समझ तज दिया गया, उसका मूल्य समझाने दे ,
अंतहीन बन  गया  तिमिर ,प्रकाश   पुंज     बन      जाने दे /
भींगा तन- मन, वर्षा के संग ,अम्लीय नीर का भान नहीं  ,
जला पंख ,पगहीन हुए ,मत  शोक - गीत   को   गाने दे  /
            षड्यंत्र ,लोभ ,के दग्ध-शिखर से मेरी फूटी तकदीर भली /-----

                                        उदय वीर सिंह.
                                              ३/१०/२०१०
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