गणतंत्र ऐसा , स्वतंत्र होने लगे हैं ,
धरती में अब चाँद बोने लगे हैं -------
सूरज के घर में बर्फीली हवाएं ,
सरिता में समुन्दर डुबोने लगे हैं ------
पसीना ना आया ,वैभव तो आया ,
पूंजी बिना लहलहाई फसल है //
अहिंसा के घर में बारूदों का गठ्हर ,
खादी के पीछे हिंसा का बल है //
संगीनों के साए में , पूजा भी होती ,
डर से परछाईयाँ अपनी खोने लगे हैं -------
सरस्वती , से नहीं दूर का वास्ता ,
शिक्षा की विधा का नियंता बने हैं //
खेल , खाने की शाला है , जाना है जिसने
गूंगे , स्वरों के , प्रवक्ता बने हैं //
हत्यारा , बलात्कारी , अत्याचारी , फरेबी ,
मसीहा , मानवता के होने लगे हैं ----------
स्विस-बैंकों में खाते आजादी में खोले ,
नियामक विधि के कोई क्या करेगा //
श्रम - साधक , है नंगा , निवाला नहीं ,
सिर पर छाया नहीं ,पीर ,प्यासा , मरेगा //
आजाद भारत की आज़ाद जनता ,
अपनों में पराये क्यों होने लगे हैं --------
पशु तो सुरक्षित है विकसित सहर में ,
क़त्ल पशुओं सा इन्सान होने लगे हैं //
गद्दारों के महलों में सूरज सुसोभित ,
दीपक , शहीदों के बुझने लगे हैं //
कैसे हम बताएं , अपनी व्यथा को ,
अब तो इन्सान , बनने से डरने लगे हैं ------
उदय वीर सिंह
२५/ ०१ /२०११
धरती में अब चाँद बोने लगे हैं -------
सूरज के घर में बर्फीली हवाएं ,
सरिता में समुन्दर डुबोने लगे हैं ------
पसीना ना आया ,वैभव तो आया ,
पूंजी बिना लहलहाई फसल है //
अहिंसा के घर में बारूदों का गठ्हर ,
खादी के पीछे हिंसा का बल है //
संगीनों के साए में , पूजा भी होती ,
डर से परछाईयाँ अपनी खोने लगे हैं -------
सरस्वती , से नहीं दूर का वास्ता ,
शिक्षा की विधा का नियंता बने हैं //
खेल , खाने की शाला है , जाना है जिसने
गूंगे , स्वरों के , प्रवक्ता बने हैं //
हत्यारा , बलात्कारी , अत्याचारी , फरेबी ,
मसीहा , मानवता के होने लगे हैं ----------
स्विस-बैंकों में खाते आजादी में खोले ,
नियामक विधि के कोई क्या करेगा //
श्रम - साधक , है नंगा , निवाला नहीं ,
सिर पर छाया नहीं ,पीर ,प्यासा , मरेगा //
आजाद भारत की आज़ाद जनता ,
अपनों में पराये क्यों होने लगे हैं --------
पशु तो सुरक्षित है विकसित सहर में ,
क़त्ल पशुओं सा इन्सान होने लगे हैं //
गद्दारों के महलों में सूरज सुसोभित ,
दीपक , शहीदों के बुझने लगे हैं //
कैसे हम बताएं , अपनी व्यथा को ,
अब तो इन्सान , बनने से डरने लगे हैं ------
उदय वीर सिंह
२५/ ०१ /२०११
2 टिप्पणियां:
पशु तो सुरक्षित है विकसित सहर
क़त्ल पशुओं सा इन्सान होने लगे हैं
मार्मिक प्रस्तुति .
गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
पशु तो सुरक्षित है विकसित सहर में ,
क़त्ल पशुओं सा इन्सान होने लगे हैं //
गद्दारों के महलों में सूरज सुसोभित ,
दीपक , शहीदों के बुझने लगे हैं //
बहुत सार्थक और सटीक प्रस्तुति..बहुत सुन्दर. गणतंत्र दिवस की हार्दिक बधाई !
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