शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

**उत्तराधिकारी **

मासूम                                                                               
अपलक  ,   शांत ,
पूछती    ऑंखें ,
बताओ     मुझे  !
क्यों     दिया      ? 
अंतहीन   वेदनाओं   का   पहाड़  /
अभी  तो   मुझे   समझ    नहीं ,
पांव    रखने    की     धरती     पर  ------
मिलती    है   कोख    में ,
असीम   सुरक्षा   ,   माँ   का , प्रकृत   का , 
प्यार ,---- 
नए   जीवन   के   संक्रम     ,  स्वप्न , 
उजाला  नव    जीवन  का ,  सृजन     का    /
लोरी    सुनाने   की , उंगलियाँ     पकड़    कर     चलने   की   
हसरत   ------ 
पर   मुझे  क्या     मिला    माँ   ?
पुत्र    ! 
अनुत्तर   हूँ   मैं   ,
तेरे   प्रश्नों   का  उत्तर  मांगती   हूँ   ,
नहीं   पाती  किसी   से    /
माँ  बनाना   मेरा  अधिकार   है ,
परन्तु   क्यों  बनी    ?
छली   गयी   विस्वास  में , आदर्शों    में 
उस   हरजाई  से   , समाज  से  ,
जिसने   बंधा    मुझे ,
एड्स  पीड़ित  से  , बंधन  में , अभिमान   के साथ    /
जो   पाया  उससे  , मिला   तुमको  ,
मेरे    अवयव  !
वो    चला     गया   ,
मुझे    जाना    होगा  ,
अभिशप्त   जीवन  के  उत्तराधिकारी   !
अभागी  मांगती   है  दुआ  ,
जो    न  माँगा  होगा   किसी  माँ  ने    /
न    बने   कोई    उत्तराधिकारी    तेरा    .
जी   रही   हूँ  , लेकर    घृणा  , अपमान   का ,
चरित्रहीनता    का   बोझ  ,
जो   दिया  किसी    ने  ,
अपना      समझ     कर      /

                                 उदय    वीर    सिंह       

                                   17.02.2011.










6 टिप्‍पणियां:

vandana gupta ने कहा…

एक बेहद कडवा सच्…………………मार्मिक चित्रण्।

Er. सत्यम शिवम ने कहा…

आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (19.02.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.uchcharan.com/
चर्चाकार:Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)

Anupama Tripathi ने कहा…

जीवन का यह स्वरुप देख कर मौन हो गया मन -
निशब्द सी सोच रही हूँ क्या लिखूं ...?
मन पर गहरा असर छोडती है ये रचना -
बधाई .

अजय कुमार ने कहा…

उफ्फ--अंतहीन पीड़ा

वीना श्रीवास्तव ने कहा…

जो न माँगा होगा किसी माँ ने /
न बने कोई उत्तराधिकारी तेरा .
जी रही हूँ , लेकर घृणा, अपमान का ,
चरित्रहीनता का बोझ
जो दिया किसी ने
अपना समझ कर /

कितनी कड़ुवे सच को बयां करती है यह रचना..झकझोर देने वाली रचना...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

शायद आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज बुधवार के चर्चा मंच पर भी हो!
सूचनार्थ