ओ मानस के दंश - भाव ,
उन्मुक्त कभी न कर मुझे ,
भर देंगे शब्दों में सीकर ,
बन कर गीत बह जाओगे -----
संवेदन सून्य दीवारों में ,
स्पंदित होकर क्या करना ,
स्वनाम - धन्य , मूर्धन्य अनन्य ,
निष्फल प्रमेय को क्या पढ़ना /
*
निर्झर को देख ! मन गाता जाये ,
बांधे गांठ क्या पाओगे ------
भरे पीड़ा हृदय बोझिल ,
झरते अश्क निशहाय गमन
न तोड़ मुझे अतिवेगन से ,
अतिरंजित होता अंतर्मन /
*
निश्छल प्रीत सदा मर्यादित ,
भ्रंश - शील सह पाओगे ? -----
उठती तरंग विस्तृत विशाल ,
असमर्थ पयोधि विस्मित नयन ,
भयातुर होते दिग - दिगंत ,
वाचक सृष्टी के राजहंश ,
*
अदम्य स्रोत , चिंतन की शाला ,
कभी सरस , स्नेह बन पाओगे ------
बंध सका समय , आगोश नहीं ,
न डोर , शाम को बांध सकी
रत्नाकर क्या छिपाए दिनकर को ,
न किरण निशा को साध सकी ,
*
तुम विवेचित करते ब्रह्मांड ,नक्षत्र ,
क्या स्वयं विवेचित हो पाओगे -----
तुम होगे अधिनायक ब्रह्माण्ड प्रखर ,
प्रारब्ध , विश्व के लेखाकार ,
कर मत गुमान ,रचनाकार नहीं ,
रचना के हो केवल एक प्रकार /
*
सरस प्रेम , आशीष बरो ,
क्या उसके बिन रह पाओगे ----
प्रयाण विश्व का अन्वेषण ,
अमृत गंगा का वाहक बन
विकृत चिंतन ,पीड़ा उत्सर्जन ,
घृणा विनास का मत करो वरण ,
*
चैतन्य भाव का अतिगामी ,
क्या ! अवचेतन को तज पाओगे ----
उदय वीर सिंह .
1 टिप्पणी:
तुम विवेचित करते ब्रह्मांड ,नक्षत्र ,
क्या स्वयं विवेचित हो पाओगे -----
जीवन में उत्साह का संचार करने वाला गीत...
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