निकली स्वच्छ
आंचल की
धवल धार से ,
इठलाती इतराती ,सतरंगी
छटा के मध्य ,
नयनाभिराम दृश्य ,
रिमझिम ,स्वप्निल, स्वेद कणों का जाल,
स्नैह,स्नैह,मंथर पवन ,
करतल ध्वनि बादलों की,
देते उत्साह,
जा !
प्रवास हो अक्षुण ,किसी अमर कोष में ,
ममता का आलिंगन हो ,
निश्छला ! उतरती गयी , क्षितिज की ओर
गंतव्य से अनजान ,
पाई गोंद ,
सरित प्रवाह में
तिरते टूटे पत्ते का../
किसपल हो जाये अस्तित्वहीन ,
विलीन अथाह जल-राशि में,
न पा सकी सीपी की कोख ,
न बैठ सकी गुलाब पर ,
मूरत हीरे की बन ,
न बन सकी
स्वाति की बूंद ,
बुझाने को
किसी ब्रती की
प्यास ........
उदय वीर सिंह .
7 टिप्पणियां:
अच्छी प्रस्तुति
भावपूर्ण सुन्दर रचना..आभार
अथाह जल-राशि में,न पा सकी सीपी की कोख ,न बैठ सकी गुलाब पर ,मूरत हीरे की बन ,न बन सकी स्वाति की बूंद ,बुझाने को किसी ब्रती कीप्यास ........
बहुत गहन अभिव्यक्ति...
.
बहुत ही गहन अभिव्यक्ति।
अरे वाह इतनी सुन्दर रचना।
इसकी ध्वन्यात्मकता तो देखते ही बनती है।
भावपूर्ण बहुत गहन अभिव्यक्ति...
निर्झर-सी बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना....
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