जब शब्दों के भाव निरुत्तर हैं
क्यों आई कविता बनकर -
जब प्यास लगी तब दूर रही
जब पास हुयी तब प्यास नहीं -
स्नेह के बंध से मुक्त हुए ,
फिर बंधन की अब चाह नहीं-
जब सुख चुके अधराधर हैं
व्यर्थ बही सरिता बनकर -
तिरते समीर में ताप घुला ,
तपता अंतस सद्दभाव नहीं
जब बिक चूका है जन-मानस,
व्यवसाय रहा , मृदुभाव नहीं -
जब बंध- अनुबंध पिटारों में,
दूर बहुत शशिकर ,दिनकर -
काया का मोल तो मिलता है ,
भावों का मोल कहाँ मिलता-
खिलते है कली,कुसुम गुलशन,
उत्सर्ग बीज को क्या मिलता-
मूक ,निराशा शापित पथ ,
मांग रहा अपना रहबर -
शमशान बने हैं शहर , गाँव ,
स्वर श्वानो के गूंज रहे -
बन गयी लोथ मानवता है ,
बे- खौफ , दरिन्दे नोच रहे -
संवेदन सून्य,गिरवी जिह्वा ,
वाणी रहती बनकर अनुचर -
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अब नगर -वधु ही सीता है ,
सीता रहती पतिता बनकर -
--- उदय वीर सिंह
31.01.2012
6 टिप्पणियां:
काया का मोल तो मिलता है ,
भावों का मोल कहाँ मिलता-
खिलते है कली,कुसुम गुलशन,
उत्सर्ग बीज को क्या मिलता-
मूक ,निराशा शापित पथ ,
मांग रहा अपना रहबर -...............सत्य कथन ....आज के वक्त सब ऐसा ही हैं
हैं अशेष इच्छायें मन में..
बहुत उम्दा
अब नगर -वधु ही सीता है ,
सीता रहती पतिता बनकर
बेहद खूबसूरत रचना और भाव ...
आभार भाई जी !
तिरते समीर में ताप घुला ,
तपता अंतस सद्दभाव नहीं
जब बिक चूका है जन-मानस,
व्यवसाय रहा , मृदुभाव नहीं -
सच बयां करती आपकी ये पंक्तियाँ अप्रतिम हैं...बधाई
नीरज
तिरते समीर में ताप घुला ,
तपता अंतस सद्दभाव नहीं
जब बिक चूका है जन-मानस,
व्यवसाय रहा , मृदुभाव नहीं -
बहुत सुन्दर अनुप्रासमय गीत....
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