बैसाखी एक समिधा ....
युगों से चली आ रही प्राचीन परम्पराओं के निर्वहन में वैसे समस्त ऋतुओं का व उनमें आने वाले पर्वों का अपना अलग महत्त्व है | इस तथ्यात्मक सत्य से इनकार नहीं किया जा सकता ,फिर भी ग्रीष्म ऋतु के आरंभिक चरण के सोपानों में आने वाले पीत पर्वों का अद्वितीय आलोक है | नवल संवत्सर का आरंभ [हिन्दू जंत्रीनुसार] चैत्र माह के शुक्ल पक्ष { प्रतिप्रदा से } होता है, हिन्दू श्रद्धालु ,शक्ति -साधक नवरात्रि का व्रत, पूजन बड़ी शुचिता व भावमयी प्रीत से देवी दुर्गा की आराधना करते हैं | हर्षौल्लास सहित भक्तिमयी वातावरण सृजित हो जाता है , मौसम भी अभी खुशगवार रहता है |
भौगोलिक स्थिति भी अनुकूलन में रहती है ,रबी की फसलें लगभग २५-३० डिग्री के तापमान में पक कर कटाई हेतु तैयार हो जाती हैं | किसान अपनी मेहनत के प्रतिफल की आश लगाये बैठा, खुश होता है की सुनहरे सपनीले दिन आ गए है ,स्वागत की तयारी करता है ,खुशियों, समृद्धि व सपनों को साकार करने वाले यज्ञ की इसी भौगोलिक समिधा को हम बैसाखी कहते हैं |
किसान को अपनी कमाई का मूल्य मिलना है ,भविष्य की योजना बनानी है , बेटे-बेटियों की पढाई ,युवा होते मुंडे -कुड़ियों की कुडमाई , नए आवश्यक मशीन कल पुर्जों को खरीदना बदलना , घर की रंगाई पुताई ,मरम्मत के साथ ही हीर के लिए ,पाजेब , कंगन की हसरत भी बलवती होती है ,बैसाखी मन में एक नवा उत्साह लेके आती है ,सारा जनमानस कितनी बेसब्री से प्रतीक्षा करता है ,सहजता से उनके चहरे के भावों को पढ़ , जाना जा सकता है | प्रकारान्तर से खुशहाली का उत्साहित वातावरण ,प्रकृति का आशीर्वाद पाकर तरंगित हो उठता है |
ऐतिहासिकता का अत्यंत संवेदनशील दीप १८ वी शताब्दी में प्रज्वलित होता है | हिदुस्तान व हिन्दवी जनमानस की पीड़ा असह्य हो चली थी , अपनी संपत्ति ,अपनी आबरू, अपना देश अपना धर्म ,पराया होने लगा था, अपनी स्वांस पर भी ताले लगे हुए थे अगर कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी | विदेशी अत्याचारियों आतंकियों ने भारतीय जनमानस के जीवन नर्क बना दिया था | जिस तरह से भारतीय अभिजात्य वर्ग जो सामान्यतः सुविधाभोगी हुआ करता है ,तुष्टिकरण में अटल विस्वास रखता है ,बड़ी तेजी से हवा का रुख भांप अपनी पीठ हवा की तरफ कर रहा था ,धर्मान्तरित हो पाला बदल रहा था ,मुकर रहा था अपने धर्म और दायित्वों से, फिर सामान्य जनमानस का क्या ? वह तो घनीभूत पीड़ा के झंझावातों में घिरा हुआ था ,प्रतीक्षा थी उसे किसी मसीहा की जो भंवर से किश्ती को निकाले | अवसरवादियों की पौ बारह थी, मंत्री, मंसबदार का ख़िताब पाए जा रहे थे ,अपने ही समाज धर्म को पददलित करने में जरा भी उन्हें संकोच नहीं रहा , सामाजिक ही नहीं आर्थिक स्थिति भी हाथों से जाती रही | निरीह देशवासी पिस रहे रहे थे |
लाचारी ,वेवसी व दैन्यता को कहीं कोई सूक्ष्मता से ध्यानस्थ हो देख रहा था तो वे थे दसवें गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज | जन मानस को आत्मबल ,विस्वास ,समता व शौर्य की आवश्यकता थी ,निहितार्थ " मानुष की जाति सब एकै पछानिबो " सूत्रवाक्य को रग -रग में समाहित कर ,एक राग, एक देश ,एक भेष के भाव व संकल्प से व्सज्जित कर दिया,समस्त भारत उद्वेलित हुआ | आतंकी लुटेरे विदेशियों के विरुद्ध सैन्य उद्दघोष सन- 1756 स्थान आनंदपुर साहिब दिन बैसाखी को खालसा के जन्म ने परिणिति पाई | पुरातनता की क्षीण शक्ति पर मजबूत हठ, ने अतिशय शोर व बाधा डाली पर ,नव जीवन के पांधी- सिख मनुष्यता ,अखंड देश की प्रीत से बंधे देश के कोने कोने से कमजोर साधन व्यवस्था के वावजूद निश्चित स्थान व नियत समय पर उपस्थित हो , देश धर्म की यज्ञशाला में अपने शीश की समिधा को अर्पित किया | खालसा की उत्पत्ति होती है , गुरु जी द्वारा भरी सभा में देश-धर्म हितार्थ शीश माँगे जाने पर गुरु परीक्षा में खरे उतरे ,महान बलिदानी पंज प्यारे 1 - दया सिंह -लाहौर 2 -धर्म सिंह -हस्तिना पुर 3 - मोहकम सिंह -जगन्नाथपूरी 4 -हिम्मत सिंह -गया 5 -साहिब सिंह -बीदर को दीक्षित [अमृत पान ] करा अमरता बख्सी व स्वयं उनसे पाहुल [अमृत /दीक्षा ]ग्रहण कर विस्व के प्रथम सर्वमान्य गुरु अंगीकार किये गए जो स्वयं गुरु भी है और चेला भी |
वाह -वाह गोबिंद सिंह ,आपे गुरु चेला |
इस तरह बैसाखी ब्रहमांड की अनोखी घटना की गवाह बनी |हिंद्स्तान की रक्षा का गौरव सूत्र पहन देदीप्यमान हुई | एक जीवंत त्याग व शौर्य की निहारिका जन्म ले अवांछित प्रभूतों को भष्मित करने में समिधा बनीं |
सुख और खुशहाली के दौर में अप्रतिम उत्साह तथा तन्मयता से सिक्ख जनमानस उदारता पूर्वक विनम्रता की गाथा का उनवान तो किया ही है ,जब जब संकट का दौर आया अपने त्याग, बल ,निष्ठा को बड़े आत्म विस्वास के साथ अर्पित किया है ,सुख और दुःख साँझा किया है |
भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का दावानल अगर आकर लेता है तो वह सर्व प्रथम सिक्खी क्षितिज ही है |अंगरेजों को सदैव शंसय रहा इस कौम पर,जैसा की आकडे कहते हैंविभिन्न नरसंघारों फाँसी ,कालापानी, कूका आन्दोलन ,अकाली लहर के शहीद, बज- बज घाट के शहीदी के कुल 4771 में से 3697 सिख हैं | जलियाँ वाला बाग़ नरसंहार[ सन 1 3 अप्रैल 1919 ] अमृतसर की सभा बैसाखी पर्व पर ही आहूत की गयी थी |भारतीय जनमानस अब कतई फिरंगियों को स्वीकार नहीं करना चाहता था , विद्रोह का भाव जनांदोलन का रूप ले रहा था | जिस बैसाखी के संकल्प भाव ने खालसा को जन्म दिया , वही भाव ,सन्देश उत्सर्जित होने वाले थे ,पंजाब का जनमानस फिरंगी तिरोहण के शंखनाद का व्रती हो गया | बैसाखी के समर्पित संकल्प में ब्रिटिश सामराज्य की चूलें हिला देने की अकूत क्षमता थी | सभा में उपस्थित निहत्थे जनसमूह [ बूढ़े ,बच्चे नौजवान ]कोई भेद नहीं ,चारों तरफ के रास्तों को बंद कर गोलियों से भून दिया गया , ....
वह इतिहास का काला धब्बा, मानवता को शर्मसार करने का कृत्य,पवित्र खुशियों का दस्तावेज बनती बैसाखी के दिन ही अपने अंजाम को प्राप्त हुआ | लगभग 1300 लोगों की निर्मम हत्या हुयी |
फिर भी अपने अछे बुरे दिनों को ,सहेजते समेटते निरंतर बैसाखी आगे बढती गयी ,यादें रह गयी नयी भावना के प्रवास को जगह देती गयी | आज भी मेले लगते हैं लगेंगे कहीं श्रद्धांजलि के , कही स्नेह- सौगात के पुष्प बिखरते हैं | हमें इसके भावों में ढल ,ग़मों को भूलने की आदत तो डालनी ही होगी , करना होगा निर्माण के सार्थक यत्न,चयन करने होंगे अपने रंग ,वैसे तो बैसाखी के रंग तो हजार हैं |
तेरे इश्क की फितरत है नूर सी
जफा करते हैं, वफ़ा ही मिलती है-
युगों से चली आ रही प्राचीन परम्पराओं के निर्वहन में वैसे समस्त ऋतुओं का व उनमें आने वाले पर्वों का अपना अलग महत्त्व है | इस तथ्यात्मक सत्य से इनकार नहीं किया जा सकता ,फिर भी ग्रीष्म ऋतु के आरंभिक चरण के सोपानों में आने वाले पीत पर्वों का अद्वितीय आलोक है | नवल संवत्सर का आरंभ [हिन्दू जंत्रीनुसार] चैत्र माह के शुक्ल पक्ष { प्रतिप्रदा से } होता है, हिन्दू श्रद्धालु ,शक्ति -साधक नवरात्रि का व्रत, पूजन बड़ी शुचिता व भावमयी प्रीत से देवी दुर्गा की आराधना करते हैं | हर्षौल्लास सहित भक्तिमयी वातावरण सृजित हो जाता है , मौसम भी अभी खुशगवार रहता है |
भौगोलिक स्थिति भी अनुकूलन में रहती है ,रबी की फसलें लगभग २५-३० डिग्री के तापमान में पक कर कटाई हेतु तैयार हो जाती हैं | किसान अपनी मेहनत के प्रतिफल की आश लगाये बैठा, खुश होता है की सुनहरे सपनीले दिन आ गए है ,स्वागत की तयारी करता है ,खुशियों, समृद्धि व सपनों को साकार करने वाले यज्ञ की इसी भौगोलिक समिधा को हम बैसाखी कहते हैं |
किसान को अपनी कमाई का मूल्य मिलना है ,भविष्य की योजना बनानी है , बेटे-बेटियों की पढाई ,युवा होते मुंडे -कुड़ियों की कुडमाई , नए आवश्यक मशीन कल पुर्जों को खरीदना बदलना , घर की रंगाई पुताई ,मरम्मत के साथ ही हीर के लिए ,पाजेब , कंगन की हसरत भी बलवती होती है ,बैसाखी मन में एक नवा उत्साह लेके आती है ,सारा जनमानस कितनी बेसब्री से प्रतीक्षा करता है ,सहजता से उनके चहरे के भावों को पढ़ , जाना जा सकता है | प्रकारान्तर से खुशहाली का उत्साहित वातावरण ,प्रकृति का आशीर्वाद पाकर तरंगित हो उठता है |
ऐतिहासिकता का अत्यंत संवेदनशील दीप १८ वी शताब्दी में प्रज्वलित होता है | हिदुस्तान व हिन्दवी जनमानस की पीड़ा असह्य हो चली थी , अपनी संपत्ति ,अपनी आबरू, अपना देश अपना धर्म ,पराया होने लगा था, अपनी स्वांस पर भी ताले लगे हुए थे अगर कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी | विदेशी अत्याचारियों आतंकियों ने भारतीय जनमानस के जीवन नर्क बना दिया था | जिस तरह से भारतीय अभिजात्य वर्ग जो सामान्यतः सुविधाभोगी हुआ करता है ,तुष्टिकरण में अटल विस्वास रखता है ,बड़ी तेजी से हवा का रुख भांप अपनी पीठ हवा की तरफ कर रहा था ,धर्मान्तरित हो पाला बदल रहा था ,मुकर रहा था अपने धर्म और दायित्वों से, फिर सामान्य जनमानस का क्या ? वह तो घनीभूत पीड़ा के झंझावातों में घिरा हुआ था ,प्रतीक्षा थी उसे किसी मसीहा की जो भंवर से किश्ती को निकाले | अवसरवादियों की पौ बारह थी, मंत्री, मंसबदार का ख़िताब पाए जा रहे थे ,अपने ही समाज धर्म को पददलित करने में जरा भी उन्हें संकोच नहीं रहा , सामाजिक ही नहीं आर्थिक स्थिति भी हाथों से जाती रही | निरीह देशवासी पिस रहे रहे थे |
लाचारी ,वेवसी व दैन्यता को कहीं कोई सूक्ष्मता से ध्यानस्थ हो देख रहा था तो वे थे दसवें गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज | जन मानस को आत्मबल ,विस्वास ,समता व शौर्य की आवश्यकता थी ,निहितार्थ " मानुष की जाति सब एकै पछानिबो " सूत्रवाक्य को रग -रग में समाहित कर ,एक राग, एक देश ,एक भेष के भाव व संकल्प से व्सज्जित कर दिया,समस्त भारत उद्वेलित हुआ | आतंकी लुटेरे विदेशियों के विरुद्ध सैन्य उद्दघोष सन- 1756 स्थान आनंदपुर साहिब दिन बैसाखी को खालसा के जन्म ने परिणिति पाई | पुरातनता की क्षीण शक्ति पर मजबूत हठ, ने अतिशय शोर व बाधा डाली पर ,नव जीवन के पांधी- सिख मनुष्यता ,अखंड देश की प्रीत से बंधे देश के कोने कोने से कमजोर साधन व्यवस्था के वावजूद निश्चित स्थान व नियत समय पर उपस्थित हो , देश धर्म की यज्ञशाला में अपने शीश की समिधा को अर्पित किया | खालसा की उत्पत्ति होती है , गुरु जी द्वारा भरी सभा में देश-धर्म हितार्थ शीश माँगे जाने पर गुरु परीक्षा में खरे उतरे ,महान बलिदानी पंज प्यारे 1 - दया सिंह -लाहौर 2 -धर्म सिंह -हस्तिना पुर 3 - मोहकम सिंह -जगन्नाथपूरी 4 -हिम्मत सिंह -गया 5 -साहिब सिंह -बीदर को दीक्षित [अमृत पान ] करा अमरता बख्सी व स्वयं उनसे पाहुल [अमृत /दीक्षा ]ग्रहण कर विस्व के प्रथम सर्वमान्य गुरु अंगीकार किये गए जो स्वयं गुरु भी है और चेला भी |
वाह -वाह गोबिंद सिंह ,आपे गुरु चेला |
इस तरह बैसाखी ब्रहमांड की अनोखी घटना की गवाह बनी |हिंद्स्तान की रक्षा का गौरव सूत्र पहन देदीप्यमान हुई | एक जीवंत त्याग व शौर्य की निहारिका जन्म ले अवांछित प्रभूतों को भष्मित करने में समिधा बनीं |
सुख और खुशहाली के दौर में अप्रतिम उत्साह तथा तन्मयता से सिक्ख जनमानस उदारता पूर्वक विनम्रता की गाथा का उनवान तो किया ही है ,जब जब संकट का दौर आया अपने त्याग, बल ,निष्ठा को बड़े आत्म विस्वास के साथ अर्पित किया है ,सुख और दुःख साँझा किया है |
भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का दावानल अगर आकर लेता है तो वह सर्व प्रथम सिक्खी क्षितिज ही है |अंगरेजों को सदैव शंसय रहा इस कौम पर,जैसा की आकडे कहते हैंविभिन्न नरसंघारों फाँसी ,कालापानी, कूका आन्दोलन ,अकाली लहर के शहीद, बज- बज घाट के शहीदी के कुल 4771 में से 3697 सिख हैं | जलियाँ वाला बाग़ नरसंहार[ सन 1 3 अप्रैल 1919 ] अमृतसर की सभा बैसाखी पर्व पर ही आहूत की गयी थी |भारतीय जनमानस अब कतई फिरंगियों को स्वीकार नहीं करना चाहता था , विद्रोह का भाव जनांदोलन का रूप ले रहा था | जिस बैसाखी के संकल्प भाव ने खालसा को जन्म दिया , वही भाव ,सन्देश उत्सर्जित होने वाले थे ,पंजाब का जनमानस फिरंगी तिरोहण के शंखनाद का व्रती हो गया | बैसाखी के समर्पित संकल्प में ब्रिटिश सामराज्य की चूलें हिला देने की अकूत क्षमता थी | सभा में उपस्थित निहत्थे जनसमूह [ बूढ़े ,बच्चे नौजवान ]कोई भेद नहीं ,चारों तरफ के रास्तों को बंद कर गोलियों से भून दिया गया , ....
वह इतिहास का काला धब्बा, मानवता को शर्मसार करने का कृत्य,पवित्र खुशियों का दस्तावेज बनती बैसाखी के दिन ही अपने अंजाम को प्राप्त हुआ | लगभग 1300 लोगों की निर्मम हत्या हुयी |
फिर भी अपने अछे बुरे दिनों को ,सहेजते समेटते निरंतर बैसाखी आगे बढती गयी ,यादें रह गयी नयी भावना के प्रवास को जगह देती गयी | आज भी मेले लगते हैं लगेंगे कहीं श्रद्धांजलि के , कही स्नेह- सौगात के पुष्प बिखरते हैं | हमें इसके भावों में ढल ,ग़मों को भूलने की आदत तो डालनी ही होगी , करना होगा निर्माण के सार्थक यत्न,चयन करने होंगे अपने रंग ,वैसे तो बैसाखी के रंग तो हजार हैं |
तेरे इश्क की फितरत है नूर सी
जफा करते हैं, वफ़ा ही मिलती है-
4 टिप्पणियां:
इतने पुण्य अवसर को अंग्रेजों ने दागदार किया है..तार्किक आलेख..
बैसाखी पर विस्तृत आलेख हेतु आभार.....
बेहतरीन प्रस्तुति
पधारें "आँसुओं के मोती"
sundar vicharpurn lekh
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