शनिवार, 27 सितंबर 2014

अंधों से हिजाब कर लो-


 




 ख्वाबों को आँखों से कभी आजाद कर लो
उजड़ा  हुआ चमन है फिर आबाद कर लो -

दौर लौटा कभी , बन के माजी जो गया
क्या मुनासिब है ,अंधों से हिजाब कर लो-

ये तो मालूम है उदय के चाँद तेरा ही नहीं
ये अच्छा नहीं की रातें तुम खराब कर लो -

टूट  जाता   है  दिल    आईना एक  दिन
ये मुनासिब नहीं की खुद को नाराज कर लो
  
उदय वीर सिंह 

6 टिप्‍पणियां:

Arun sathi ने कहा…

उम्दा... बेहतरीन

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (28-09-2014) को "कुछ बोलती तस्वीरें" (चर्चा मंच 1750) पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
शारदेय नवरात्रों की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…

बहुत उम्दा !
नवरात्रों की हार्दीक शुभकामनाएं !
शुम्भ निशुम्भ बध - भाग ५
शुम्भ निशुम्भ बध -भाग ४

Unknown ने कहा…

bahut hi lajawaab prastuti.....!!!

JEEWANTIPS ने कहा…

Very nice post..

Dr. Rajeev K. Upadhyay ने कहा…

मित्र इतना ही कह सकूँगा कि वाह क्या खुब कहा आपने। कई बार पढ़ा आपकी नज़्म को। धन्यवाद बहुत अच्छी लगी। स्वयं शून्य