रविवार, 14 दिसंबर 2014

आग तुममें भी है हममें भी है -



अवसाद तिरोहित करना होगा हौसला ओ
जज्बात हममें भी है तुममें भी है -

क्यों न पिघलेगा बर्फ़ीला मंजर, दहकती हुई
आग  हममें भी है तुममें भी है -


अँधेरों का डेरा हमारी कमजोरी है जलाओ के  
आफताब हममें है भी है तुममें भी है -

कश्मकश की जिंदगी बेकसी देती है, सिकंदर का
अंदाज हममें भी है तुममें भी है -

होगी फतेह हर ऊंचाई कामिल बुलंदियों की 
जुनूने परवाज़ हममें भी है तुममें भी है -

उदय वीर सिंह

3 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (15-12-2014) को "कोहरे की खुशबू में उसकी भी खुशबू" (चर्चा-1828) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Mukesh Kumar ने कहा…

बहुत सुन्दर कृति

हमारे blog पे भी पधारें हमें अच्छा लगेगा

Mukesh Kumar ने कहा…

बेहद सुंदर कृति
हमारे ब्लॉग पे पधारे हमे अच्छा लगेगा