शनिवार, 24 अक्तूबर 2015

किसी की वंदगी को देख


















 



है मौत की अमानत 
हँसती जिंदगी को देख -
ढूँढता है दूसरों में पहले
अपनी गंदगी को देख -
कुफ़्र की चिंता तुम्हें है
किसी की सादगी को देख -
तुम खड़े हो शमशीर लेकर
किसी की वंदगी को देख -


उदय वीर सिंह


गुरुवार, 22 अक्तूबर 2015

बुत की प्राण प्रतिष्ठा है ....

बुत की प्राण प्रतिष्ठा है
सड़कों पर जीवन रोता है -
अर्पित करते अर्थ द्रव्य
कहीं जीवन भूखा सोता है -
रोज बदलते परिधान स्वर्ण
कहीं जीवन नंगा होता है -
बहती धार पय घृत अमृत की
जीवन आँसू पीता है -
भाग्य जन्म का दोष समझ
जीवन अभिशापित जीता है -
पत्थर में जीवन की आशा
कहीं जीवन पत्थर होता है -


उदय वीर सिंह


बुधवार, 21 अक्तूबर 2015

आरत मन होता है -

Udaya Veer Singh's photo.सोच अतीत का यश वैभव
आरत मन होता है -
परिदृश्य आज का देख
आहत मन होता है -
दुरभि संधियों का पढ़ प्रलेख 
विक्षत मन होता है -
काँटों के सिंचन से कितना
चिंतित मन होता है -
किसको गले लगाया सोच
विकृत मन होता है -
प्रज्वलित शिखा में भष्म शेष
घर किसका आँगन होता है -

उदय वीर सिंह

मंगलवार, 20 अक्तूबर 2015

रेप दमन संहार भूल जा पगले .....

तब सूरज चमकेगा मेरा

जब डूबेगा तेरा -
जागेगा बल पौरुष मेरा
जब बंधित होगा तेरा -
मनोरथ पूरा होगा मेरा
जब टूटेगा तेरा -
तब फिर दाल गलेगी मेरी
जब घर जलेगा तेरा -
न्यारा महल सजेगा मेरा
डेरा जब उजड़ेगा तेरा -
जा मधुशाला बेसुध हो जा
वह भाग्य लिखेगा तेरा -
धर्म संप्रदाय का वैर सराहो
हथियार बिकेगा मेरा -
शांति रहेगी जब समाज मेँ
क्या वजूद रहेगा मेरा
रेप दमन संहार भूल जा पगले
यह काम सोचना मेरा -

उदय वीर सिंह .



सोमवार, 19 अक्तूबर 2015

अपनी खबर को छोड़कर

उन्हें सबकी खबर है सिर्फ
अपनी खबर को छोड़कर
उनको मालूम है सबकी सिर्फ
अपनी उमर को छोड़कर -
कभी बता भी देते हैं उदय
आवाम की उमर को जोड़कर
उन्हे मालूम है लाश उनकी
कंधों पर उनके नहीं जाएगी
फातिहा पढ़ सकेगे सबकी
सिर्फ अपनी कब्र को छोड़कर -
उन्हें यकीन है नजरें देखती नहीं
सिर्फ उनकी नजर को छोड़कर -
नीचे धूपो गर्मी बेहिसाब होती है
सिर्फ उनके शजर को छोड़कर -

उदय वीर सिंह

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2015

प्रतिकार विहीनों को .....

अधिकार नहीं मिलते ,प्रतिकार विहीनों को 
जीना भी क्या जीना है अधिकार विहीनों को -

कहाँ गिरेंगे क्या मालूम शोलों पर या सागर मेँ
ले जाती हवा उड़ा करके पत्ते शाखविहीनों को-

वो राह बहुत सूनी है जिस राह गए वालिदानी 
वे देकर विदा हुए तुमको दरिया मेँ शफीनों को-

बिखरे हैं अँधेरों मेँ कुछ दीप जलाने शेष अभी 
पत्थर ही हाथ मेँ आएंगे पहचाने न नगीनों को -

उदय वीर सिंह 

मंगलवार, 13 अक्तूबर 2015

दर्द ,बनकर लावा पिघलना चाहता है -

तोड़ पर्वतों को सोता निकलना चाहता है
अब समय अपना चक्र बदलना चाहता है
मरुस्थल मेँ आग आखिर कब तक बरसेगी
छोड़ कर समंदर बादल बरसाना चाहता है -
परम्पराओं ने कहीं आग तो कहीं पानी लिखा
खोखले आदर्शों का जीवन बदलना चाहता है
कर्ण एकलव्य अहिल्या की दशा बदलनी चाहिए
धरती बदलना चाहती है गगन बदलना चाहता है -
जिंदगी के सवालों को नजरअंदाज न कर 
दर्द ,बनकर लावा अब पिघलना चाहता है -
अँधेरों की सलाखों मेँ कब तक रहेगा कैद 
खोल प्राची द्वार अंशुमान निकलना चाहता है -

उदय वीर सिंह

सोमवार, 12 अक्तूबर 2015

मंजिल दे गए शाम के जले दिये

न हो सकी जिंदगी आसान
मशक्कतों के बाद भी -

कैद रह गए जज़्बात दिल में
मिलने के बाद भी -

बनी रही पैरों की जरूरत उदय
उड़ने के बाद भी -

फिजाँ आई ,फिर खिले गुल
मुश्किलों के बाद भी -

मंजिल  दे गए शाम को जले दिये
भोर मेँ ढलने के बाद भी -

उदय वीर सिंह 



रविवार, 11 अक्तूबर 2015

सोचा कैसे ....

सोचा कैसे -
सियासत में ही लाएँगे युवराज को
सीमा का प्रहरी, सोचा कैसे ?
सिर बोझ बहुत है टोपी का अपने
ढोयेँ व्यथा देश की ,सोचा कैसे ?
शिक्षण प्रशिक्षण राजनीति का देंगे
संस्कृति संस्कारों का, सोचा कैसे ?
उदय वीर सिंह का बेटा शहीदी पाये
मरे हमारा बेटा ! सोचा कैसे ?
सम्मेलन दंगा हप्ता वसूली कायम हैं ,
खेतों मेँ हल चलाये सोचा कैसे ?
धूप नैवेद्य दीपों से देवी की पूजा
बेटी कोख में आए ! सोचा कैसे ?
वोट, मंचों की भाषा हिन्दी है
घर में भी बोलेंगे,सोचा कैसे ?
नारों में ही आदर्श अच्छे लगते हैं
जीवन में भी लाएँगे,सोचा कैसे ?
ड्राईंगरूम सजे कैलेंडर किंगफिशर के
भगत बोस आजाद, सोचा कैसे ?

उदय वीर सिंह



शनिवार, 10 अक्तूबर 2015

मेरा आँगन बाजार नहीं है -

हो सकता है तेरा जीवन 
मेरा जीवन लाचार नहीं है -
हो सकता है तेरा आँगन 
मेरा आँगन बाजार नहीं है -

बिक जाऊंगा स्वार्थ अर्थ मेँ
यह मेरा सभ्याचार  नहीं है 
ना दरबारी हूँ न राग-दरबारी 
दासत्व मुझे स्वीकार नहीं है -

हर पल जीता निज स्वांसों पर 
कुछ भी कहीं उधार नहीं है ,
निर्माणक हूँ संवेदन-शाला का 
वेदन विच्छेदन आचार नहीं है -

अशिष्ट झूठ छल का सम्पादन 
मनव संस्कृति संस्कार नहीं है 
हास्य परिहास का छंद विनोदी
धर्म-ग्रन्थों का सार नहीं है -
हो सकता है ,तेरा मधुवन 
मेरा मधुवन व्यापार नहीं है 
हैं अंक खुले शरणागत को 
हत वैरी को अधिकार नहीं है -

उदय वीर सिंह 




शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2015

रोटी तो चाहिए .....

जी तो लूँगा बगैर दाल सब्जी
पर रोटी तो चाहिए -

तन झाँकता है धनियाँ का
शिगाफों से बेतरह
कम से कम धोती तो चाहिए -

रेशम मलमलो मखमल के सौदागरों
गरीब के तन पर
आखिर एक लंगोटी तो चाहिए -

टांग सके आश व विस्वास को
जो पाया वादों मेँ
एक मजबूत खूंटी तो चाहिए -

खड़े हो लाश पर जीवन की बात करते हैं
आखिर उनके शतरंज के जानिब
कोई गोटी तो चाहिए -

मुझे गिला नहीं तेरे कम्युनिजम
कैपिटलिजम से हमें
अँधेरों मेँ ज्योति तो चाहिए -

उदय वीर सिंह






दाल- रोटी

रोटी से दाल ने किनारा किया है 
दुश्वार जीना हमारा किया है -

रोटी संग घी अब मयस्सर नहीं है 
अच्छे दिनों ने ईशारा किया है -

वादों की रोटियाँ सिकती रही हैं ,
ख्वाबों से रिस्ता गवारा किया है -

दवा की जगह ले रही हैं दुआएं 
मौसम ने भी बे-सहारा किया है -

फल मूल भाजी से दूरी बहुत है 
नमक रोटियों पर गुजारा हुआ है -

उदय वीर सिंह 


मंगलवार, 6 अक्तूबर 2015

दस मेरा वतन कहाँ है -

हम हुए पराए अपने आँगन
दस मेरा वतन कहाँ है -

हम विकल हुए अपनी धरती पर
दस मेरा चमन कहाँ है -

सुख दुख लेकर उडी पतंगें
दस मेरा गगन कहाँ है -

गंध बारूदी हर दिशा घुली है 
दस शीतल पवन कहाँ है -

वारे  पूत पिता तरुणी काया
दस वो सोणा वतन  कहाँ है

उदय वीर सिंह





रविवार, 4 अक्तूबर 2015

महल अंधेरा रह गया -

कुछ कमरे रौशन हुए
महल अंधेरा रह गया -

तामीर की जिन हाथों ने
उनका निबेड़ा रह गया -

अतिवेदन मेँ रातें रोईं
अरदास सहारा रह गया -

चिर प्रतीक्षित आँखों मेँ
स्वप्न सवेरा रह गया -

उदय वीर सिंह

शनिवार, 3 अक्तूबर 2015

मेरे दिन बहुरें न बहुरें ...

सीने दो जज्जबातों  को 
एक दिन पोटल बन जाएंगे -

सिर्फ उजड़ी एक बस्ती ही तो 
उनके होटल बन जाएंगे -

मेरा 'आज 'अतीत बनेगा 
उनके कल बन जाएंगे -

न उड़ पाएंगे आश पंखेरू 
किसी गह्वर जा सो जाएंगे -

मेरे दिन बहुरें न बहुरें 
उनके मसले हल हो जाएंगे -

उदय वीर सिंह 



गुरुवार, 1 अक्तूबर 2015

कंगन बिंदी याद न आई -

संघर्षों के कानन मेँ
सुबह अजानी शाम पराई -

भूल गए अपनों से वादे
लौट आने की सुधि न आई -

कह कर आया सुख लाऊँगा
दुख की पोटल गुम न पाई -

कर्ज ,दवा तो याद रहे
कंगन बिंदी याद न आई -

हाथों के छाले कम न हुए
बढ़ती पैर की रही विवाई -

बापू की मिश्री माँ का पेठा
बेटी की जलेबी हो न पाई -

उदय वीर सिंह