पूर्व की भांति यशदंतिका अपने अनन्य पुरुष मित्र भीष्म के अध्ययन शाला मे शिक्षा ज्ञान विमर्श हेतु आती थी दोनों ही सहपाठी रहे थे ,मित्रता आज भी थी । भिष्म का विषय साहित्य व यशनंदिनी का शिक्षा और समाज रहे थे । दोनों का विषय संबंध समानंतर ही था जिससे दोनों का परस्पर संबंध व झुकाव स्वभाविक था । भीष्म साहित्य का परम साधक ही नहीं समाज का कुशल चितेरा भी था । समाज को वह अपने साहित्यिक दृष्टिकोण को जोड़कर देखता था । इस समय अपना ध्यान एक विशिष्ट विधा को साहित्य में निरूपित करने पर केन्द्रित किए हुये था ,जिसमें अपनी प्रेयशी का समभाव भी निहित था । कभी कभार जब भीष्म सम्मेलनों व व्याख्यानों के कारण बाहर होता यशनदिनी भीष्म के अध्ययन कक्ष में आ जाती और घंटों अध्ययन रत रहती ,भीष्म के सृजन सरोकारों से अवगत होती ,भीष्म ने कभी इसका बुरा नहीं माना । वह प्रसन्न ही होता । उसका उसपर अटूट विस्वास था । भीष्म का नवीन चुनौतिपूर्ण सृजन अब समापन की ओर था । पुस्तक का आकार पाने की ओर है भीष्म अप्रत्यासित रूप से प्रसन्न ।
सुरमई सांझ का अवतरण ,तन पर ताम्र- लालिमा का उत्तरेय लिए अंशमान पश्चिम की ओर ढलने को आतुर
खग पंछी अपने नीड़ों की ओर नीची उड़ान लिए ,जनमानस भी दिवस की व्यस्तम संहिताओं से उबर अब अपने विश्रामर्थ व बिछड़न से मिलन की आश लिए अपने अपने कुटीरों गनतव्य की ओर गमन को आतुर । भीष्म अपने अध्ययन आसन पर सृजन के पूर्णता पर उत्साहित अपने आप पर फुला नहीं समा रहा ।
तभी अंदर आने की अनुमति निहितार्थ यशनंदिनी की मधुर आवाज गूँजती है
सादर अनुमति है प्रवेश प्रतीक्षित है । भीष्म ने प्रसन्नता में लालित्य भरे हृदय से स्वागत किया ।
क्या हो रहा है भीष्म ? दूसरे आसान पर बैठती हुई उयशनंदिनी ने कहा
यश आज मैंने अपना संकल्पित कार्य पूर्ण कर लिया है नामकरण अवशेष है । वह आप पर छोड़ता हूँ । भीष्म ने प्रफुल्लित होते हुये कहा ।
भीष्म मैं इस योग्य नहीं की नामकरण जैसा महत्वपूर्ण कार्य मैं कर सकूँ । सृजन का मन्तव्य उसकी गरिमा व लालित्य के अनुसार सृजन का नाम निरूपित होता है यह आप हीने करो । अच्छा होगा । यशनंदिनी ने गंभीरता भरे पुट में कहा ।
हाँ अगर अनुमति हो तो घर ले जाकर गंभीरता से देख सकती हूँ । यशनंदिनी ने कहा ।
यश इसे अनुमति की आवश्यकता नहीं इसकापरिमार्जन भी हो जाएगा । भीष्म ने कहा ।
इधर उधर की बातें करते रहे ,चाय पीकर यशनंदिनी वापस हो गई थी
दूसरे दिन शाम को सृजन पाण्डुलिपि के साथ यशनंदिनी भीष्म के साथ अध्ययन कक्ष में थी
कैसी लगी मेरी रचना ? भीष्म ने उत्साहित मन कहा ।
हाँ !हाँ! बताओं जी ,मैंने अपना सर्वश्रेष्ठ देने का प्रयत्न किया है । भीष्म ने पुनः कहा ।
मैं तुमसे इस निम्न स्तरीय लेखन की उम्मीद नहीं कर सकती भीष्म ! यह बाजारू पुस्तक तुम्हें कम तुम्हारे मित्र सहयोगी शुभ चिंतकों गुरुजनों परिजनों को लज्जित ही नहीं लांछित करेगी । ये विशुद्ध निम्न स्तर का
काम-शास्त्र ही तो होकर रह गया है ।शर्म आई तुमसे मित्रता करके । न लिखते तो संबंध बने रहते ।यशदंतिका मानसिक प्रताड़णा ही नहीं वरन शापित कर रही थी ।
ऐसा क्या है यश ? भीष्म अप्रत्याशित रूप से क्लांत होते हुये पूछा ।
इस काम शास्त्र में मेरा प्रतिविम्ब परिलक्षित होता है .... क्या मैं कोई नगर ...क्रोध में यशदंतिका बोल रही थी ।
ऐसा तो कुछ भी नहीं है इस रचना में यश । भीष्म ने कहा ।
पढ़ो और मंथन करो ,मेरी माँ व मेरे पिता श्री ने भी इस को पढ़ा है ।आप समझ रहे हैं न । सृजन सृजन अरे सृजन वो होता है जिसे जनसमान्य पढ़ सके । ये तदर्थ सृजन स्तरीय नहीं पूर्व में सृजित किए जा चुके है, मेरे द्वारा पढे और सुने गए कत्थ्यो से बिलगत नहीं ' ये प्रतिबंध की सीमा में आते हैं । और यशनदिनी क्रोध दिखाते चली गयी थी ।
रचनाकार भीष्म अपनी प्रेयशी के बिना किसी अनुराग व स्निग्ध भाव से कहे गए बेबाक शब्द ' ये तदर्थ सृजन स्तरीय नहीं सृजित किए जा चुके है, मेरे द्वारा पढे और सुने गए कत्थ्यो से बिलगत नहीं ' । अंतस को सतत व्यग्र किए जा रहे थे । प्रेयशी यशदंतिका पाषाण से भी वज्र शब्दों का आघात कर नेत्रों से ओझल हो चुकी थी । भीष्म के आस पास अवशेष रह गए उसके परिमल भी अब बिलुप्त होने की अवस्था में था । रह गया था मन का अवसाद उसके साथ । हृदय को यह किचित आभाष न था की यशदंतिका का आचरण सहयोग या उत्साह वर्धन के अतिरिक्त नकारात्मकता का प्रवाह पुष्ट करेगा ,वह तो अपनी थी ,जिसने आत्मा और शरीर की संगति को अविवादित और अविभेदित रूप से वांचा था। सृजन संपूर्णता के उदद्घोष की वेला में अवसान तो नहीं मिलना था ........ कैसे अप्रत्यासित हो गया ।
मेरे समस्त अथक प्रयास व्यर्थ हो गए ,मैंने बड़े मनोभाव से इस का यत्न किया जितनी मेरे मानस की सामर्थ्य थी कहीं उससे पार जाकर । दैव ! यह क्या हुआ मेरे साथ .... मैने अपना सर्वश्रेष्ठ समझ इसे प्रतिपादित किया । इस सृजन को कथ्य रस भाव अलंकार भाषा व्याकरण की समस्त वीथियों से अनुमोदनोंपरांत सशक्त परिचय के साथ साहित्य के सुकोमल पृष्ठों पर प्रतिष्ठित करने की संस्तुति ही तो यशदंतिका से चाहिए थी ।
मेरा अंतस कहता है
भीष्म ! तेरा सृजन निम्नतर नहीं हो सकता ...मेरा आत्मबल मुझे पल पल संबल देता रहा है , नवीनता समन्वयता व प्रबोध की उच्चतम सीमा के पड़ाव का वरण किया है । पर यशदंतिका के तदर्थ भाव व निष्कर्ष इसे घृणा के स्तर तक ले जाएंगे .... वितिष्णा के परिणाम देंगे सोचा न था । मन कटुता व विषैला हो गया था । भीष्म का दमकता भाल ,प्रज्ञामयी बदन अब क्लांत था , निस्तेज हो गया था । कुछ भी सार्थक नहीं सोच पा रहा था । निःचेष्ट अपने लेखन कक्ष के आसन पर निढाल पड गया था ।
कुछ देर बाद सचेष्ट हुआ ।मन बार बार यशदंतिका के शब्द प्रहारों पर केन्द्रित हो जाता । मानस में उड़ेवेलित होता ,असीम उत्तेजना भी पर अपने से अधिक उसे यशनंदिनि पर विस्वास था
वो झूठी नहीं हो सकती ,मैं उसपर कैसे अविसवास करूँ । भीष्म अपने को संयत करने का यत्न में लगा रहा । अंतत उसका निर्णय मानस से बाहर आ संकल्प का रूप ले लिया । पाण्डुलिपि अनाम रह गई । अग्नि की लौ ने अपने अंदर समाहित कर लिया । अग्नि शिखा की प्रबलता निष्क्रिय होने लगी पांडुलिप राख़ में अंतरित हो इधर उधर बिखर रही थी ।
जिनके आगमन की बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा थी।अब जिनसे कहने का साहस भर रखा था कि यश मैंने वह निम्न स्तरीय सृजन को अग्नि में समाहित दिया है ,अब तो प्रसन्न हो न ,अब तो परिजन कुटुंब गुरुजन मेरे सृजन से लांछित नहीं होंगे । वर्षों हुए नहीं आए तो नहीं आए ।
भीष्म मित्रता के लिए पाण्डुलिपि भश्मित कर पश्चाताप कर लिया था ।आंखे प्रतिक्षति रहतीं । पर उदासी ही मिलती । आज मंगलवार था सरस्वती पूजन का कार्यक्रम पर भीष्म कहीं बाहर नहीं गया । घर में समाचार पत्र पर दृष्टि डाली बड़े अक्षरों में लिखा पाया
बसंत नगर की प्रतिभाशाली साहित्यकार सुश्री यशदंतिका को उनकी रचना ' यामावती ' को प्रसिद्ध सरस्वती पुरस्कार देने की घोषणा । पुस्तक यामावती सहित्या की अनमोल देन है जिसमें काम को लालित्य का दर्शन दे शिक्षा का प्रभावी स्वरूप बताया गया है । इसकी समीक्षा हिन्दी के मूर्धन्य विद्वानों द्वारा की गयी है ,तथा हाथों हाथ लाखों प्रतियाँ बिक चुकी हैं । ऐसे यशस्वी लेखिका को सम्मान दे स्वयं सम्मान पुरस्कृत हुआ है । साथ ही यशनंदिनीन का चित्र भी शोभायमन था ।
एक अनाम रचना शिकार हो गयी थी अति-विस्वास, कुटिलता व विषैले स्नेह का ।कानों में यशदंतिका के वज्रसम शब्द अब भी सुनाई दे रहे थे , और उसी निम्नस्तरीय चोरी के सृजन से यशदंतिका पुरस्कृत और महिमामंडित हो रही थी ।
उदय वीर सिंह