गुरुवार, 31 मई 2018

लोकतन्त्र एक सुंदर शब्द ,


एक वो थे लोकतन्त्री  दरवेश 
 एक ये भी लोकतन्त्र के राज रहे 
लोकतन्त्र एक सुंदर शब्द ,
भाव सुंदरतम साज रहे -
संवेदन करुणा सहकार मरे 
समर्थ मनोरथ पाल रहे -
ज्ञानी गुणी गतिशील मनीषी
स्तब्ध निःशब्द अवसाद में हैं
हुए तिरोहित तत्व मनुखी
दैत्य उदण्ड द्वारपाल बने -
लगते ताले मूलभूत अधिकारों पर
प्रलाप प्रलंभ की छाया है
कायर कामी कपटी लोभी
अपनी परिभाषा में ढाल रहे -
गौरव शौर्य यश प्रेम प्रतिष्ठा
विनिमय के पलड़े झूल रहे
जिसकी लाठी भैंस उसी की
नैतिकता कुएं में डाल रहे -
उदय वीर सिंह

रविवार, 20 मई 2018

मैं अकिंचन.....

मैं अकिंचन.....
मैं अकिंचन अक्षरहीन 
नयनन की भाषा लिखना
चाह विमर्श की होती है 
प्रियतम की गाथा लिखना 
सरल हृदय का भाषी हूँ ,
भाव सरल भाषा लिखना ... ।
भाव समन्वय की गतिशील रहे
अविरल प्रवाह गति मंथर मंथर
संवाद मौन की गगन दुंदुभि
नाविक प्रयाण पथ सदा निरंतर -
स्वर प्रकोष्ठ के नाद करें
जाग्रत अनंत जिज्ञाषा लिखना -
स्पर्श मलय का अभिनंदन
होने का प्रतिपादन कर दे
यत्र तत्र बिखरे शुभ परिमल
एक बांध सूत्र सम्पादन कर दे -
बाँच सके निर्मल मन मेरा
भाष्य नवल परिभाषा लिखना ......... ।
पुण्य प्रसून आरत यश भव की
स्नेहमयी आशा लिखना .....
सरल हृदय का भाषी हूँ ,
भाव सरल भाषा लिखना ... ।
उदयवीर सिंह

रविवार, 13 मई 2018

माँ पावन, माँ प्रज्ञा है

माँ पावन माँ प्रज्ञा है ... ...हर दिन माँ की दात..! ; कोटिशः प्रणाम 
' माँ की दुनियाँ संतान से आरंभ हो संतान पर खत्म होती है ' । 
***
ये बाग हरा,वरक सुनहरा न होता ,
तेरे आंचल की छांव,नेह का अमृत 
माँ अगर जीवन में भरा न होता -
उदय वीर सिंह

सरल हृदय का भाषी हूँ ......

मैं अकिंचन अक्षरहीन
नयनन की भाषा लिखना
चाह विमर्श की होती है
प्रियतम की गाथा लिखना
सरल हृदय का भाषी हूँ ,
भाव सरल भाषा लिखना ...
भाव समन्वय की गतिशील रहे
अविरल प्रवाह गति मंथर मंथर
संवाद मौन की गगन दुंदुभि
नाविक प्रयाण पथ सदा निरंतर -
स्वर प्रकोष्ठ के नाद करें
जाग्रत अनंत जिज्ञाषा लिखना -
स्पर्श मलय का अभिनंदन
होने का प्रतिपादन कर दे
यत्र तत्र बिखरे शुभ परिमल
एक बांध सूत्र सम्पादन कर दे -
बाँच सके निर्मल मन मेरा
भाष्य नवल परिभाषा लिखना .........
पुण्य प्रसून आरत यश भव की
स्नेहमयी आशा लिखना .....
सरल हृदय का भाषी हूँ ,
भाव सरल भाषा लिखना ...
उदयवीर सिंह




शुक्रवार, 11 मई 2018

फर्ज गुमनाम दिखते हैं

अधिकारों के झुरमुट बढ़ रहे
फर्ज गुमनाम दिखते हैं
षडयंत्रों की शाला झूठ बुलंद
हासिए पर वलिदान दिखते हैं -
खेतों से अन्न गायब हो रहे
शहरों में किसान दिखते हैं
मजलूम बेबस निरीहों में रावण
पाखंडियों में राम दिखते हैं -

उदय वीर सिंह

बुधवार, 2 मई 2018

पीर प्रेम परिहास बने ...!

पीर प्रेम परिहास बने ---- ! 
प्यासा मांगे पानी वीर 
मदिरा का गान सुनाते हो 
अस्मत का चीरहरण करके 
रेशम के वस्त्र कजाते हो -
वेदन की व्याख्या जिह्वा से 
मधुरस घोल बिलखते हो 
रिसते घावों का संज्ञान नहीं 
मरने पर मान दिखाते हो -
आँखों में आश खुशहाली की 
विश्वास हृदय में ले बैठा 
मरुधर में गंगा उपवन होंगे 
याचक को ज्ञान बताते हो -
घाव हथेली बहते बहुतेरे 
फिर भी हाथ नहीं रुकते 
दुर्दिन दुर्भिक्ष दैन्यता तेरी 
उसको प्रतिदान बताते हो
कर्म करो फल आशा कैसी 
मैं प्रतिछाया तेरी काया का 
अमावस की रात अंधरों में
तज दूर बहुत हो जाते हो -
करते गल संवेदन की 
वेदन का किंचित भान नहीं 
दया प्रेम करुणा की शाला 
नेह उद्यान लाते हो-
उदय वीर सिंह